गलतफ़हमी
- nirajnabham
- Oct 7, 2021
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फिर याद आई
कोई उम्मीद, कोई चेहरा
गूँथता था मन ही मन
जिसकी वेणियों में
फूलों के इठलाते रंग
लचकीली डाल
स्पर्श को उकसाते चिकने पात
कसर न रह जाए स्वागत में
उस चिर प्रतीक्षित पल की
स्वीकृति के बोझ से झुकी नज़रों से
अनदेखी रह जाएगी मेरी घबराहट
छा जाएगी बन कर सुगंध
कंठ में अवरुद्ध शब्दों का मौन
दृष्टि में पौरुष की गरिमामयी लज्जा
प्रस्तुत कर देगी भूमिका कहानी की
लिखी जाती है जो
हर एक उस पल में
जब मिलता है किसी नायिका से नायक
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बहुत अलग भी नहीं था कल्पना से
वह अवश्यंभावी अपेक्षित पल
उठ गई थी अनायास झुकी नज़र
और मुड़ गई सदा के लिए
आत्मलीन आँखों का अजनबीपन देखकर ।
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