top of page

नदी

  • nirajnabham
  • Oct 19, 2021
  • 1 min read

कितना ढलका-ढलका सा रहता था उन दिनों

घुलता रहता था मौन पेड़ों का अकेलापन।

साँझ के सपनीले एकाकीपन में

कुलबुलाने लगता था झींगुरों की एकरस तान से

अधूरा सा कुछ भीतर

ज़र्दी में लिपटे अजन्मे चूजे सा ।

पलकों की कोर में अंटके अश्रु बूंद सी

बह चली थी मैं – अधूरी घाटियों की ओर

जहाँ उतना ही था अधूरा- अपनापन

जितना अधूरा था- अजनबीपन ।

जिए जाने लगे अधूरे सपने मेरे किनारों पर

किए जाने लगे अधूरे षडयंत्र

कभी बांधने, कभी मोड़ने, कभी जोड़ने के

मेरे किनारों को, बहती थी जिनके बीच मैं।

अधूरी लगती थी उनकी अधूरी नजरों को

मेरे प्रवाह की निरुद्देश्यता ।

उनके पास थी- बेशुमार अधूरी योजनाएँ

निरुद्देश्यता को उपयोगी बनाने की

जबकि मैं बहना चाहती थी – सिर्फ बहना

रात के अँधेरे की तरह

दुनिया को आहिस्ता आगोश में लेती

ओस से धोकर सुबह को सौंपती – हर रोज़।

बहुत उदास हो आती है कोई-कोई शाम

लगता है जब सदा अधूरे रहेंगे ये प्रयास

चाँद भी रूठकर चला जाता है-

अमावस आते-आते

जब जानता है कि अधूरा है सब कुछ

इस निरुद्देश्य प्रवाह को छोड़ कर

जिसमें निहारा करता है वह अपनी छवि।

जानती हूँ अधूरा है उसका रूठना

और मेरा मनाना भी क्योंकि-

मैं तो बहना चाहती हूँ सिर्फ बहना – निरुद्देश्य ।

Recent Posts

See All
सामर्थ्यहीन शब्द

कर पाते व्यक्त अंतर्द्वंद्व, शब्द  उन पलों के जब होता है संदेह अपनी ही उपलब्धियों पर खड़ा होता है अपने ही कठघरे में अपने ही सवालों से नज़र...

 
 
 
मानवता का छाता

जब-जब देता है कोई मानवता की दुहाई धिक्कारती है मानवता हो जाने दे अर्थहीन गुम जाने दे शब्द- मानवता। सँजोने को निजता प्रमाणित करने को...

 
 
 
वे दिन ये दिन

कितने लापरवाह थे दिन वे भी कितना पिघल आता था हमारे बीच जब खीजती थीं तुम और गुस्सा होता था मैं फिर किसी छोटे से घनीभूत पल में जाता था जम...

 
 
 

Comments


9760232738

  • Facebook
  • Twitter
  • LinkedIn

©2021 by Bhootoowach. Proudly created with Wix.com

bottom of page