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मुग्ध होना है तेरे रूप पर

  • nirajnabham
  • Oct 16, 2021
  • 1 min read

अतिवादी हो जाता है कभी-कभी

मेरा मन तेरे प्यार में।

जबकि जानता हूँ -

मुझे तो केवल मुग्ध होना है तेरे रूप पर।

हे उदार वदने !

संचित स्मृतियों के समृद्ध शिखरों पर

अंतहीन गतिविधियों की

अर्थहीन आत्महीनता में

भ्रमित अतिमानवों के स्वेच्छाचार में

मुझे तो केवल मुग्ध होना है तेरे रूप पर।

हे दिगंत गामिनी !

बीहड़ घाटियों में रास्ता तलाशते

सिनेमाघर से लौटते कदमों की आपाधापी में

पहचानी राह पर अनिश्चित से बढ़ते कदमों में

मुझे तो केवल मुग्ध होना है तेरे रूप पर।

हे स्मृति विनाशिनी !

कुछ भी पहले जैसा नहीं रहता

जब धड़क जाते है कुछ पल साँसों में

आरंभ हुआ था जो संघर्ष

अबोध शिशु सी सरिता के तटों पर

साझी स्मृतियों के संरक्षण युद्धों में

मुझे तो केवल मुग्ध होना है तेरे रूप पर।

हे भुवनमोहिनी !

न जाने किसे कैसे है ज्ञात

कि कुछ भी शेष नहीं रहता

तेरे पास आने के बाद

न रूप, न चेतना, न स्मृति, न अस्मिता ।

किन्तु, मुझे तो केवल मुग्ध होना है तेरे रूप पर

हे काल भक्षिणी !

अंतराल आवश्यक है

देखने के लिए तेरा रूप

अनुभूत करने के लिए तेरा आकर्षण

और परखने के लिए स्वनियोजित विकर्षण

पर मुझे तो केवल मुग्ध होना है तेरे रूप पर ।

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