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भय

  • nirajnabham
  • Oct 21, 2021
  • 1 min read

साँझ के सुरमई साए

गोरी आँचल में दीप छुपाए

क्रोड़ में निशी के रश्मि अकुलाए

थके पखेरू नीड़ में आए

दूर खड़े- पेड़ों के गुमसुम साए

धीर-धीरे पास सिमटते आए

रेशे-रेशे में अँधेरा बुनता जाए

अंतर का भय ऊपर आए

वर्षों फिरता रहा छुपाए

जाने कितने मंज़िल आए

पीछा छूटा नहीं छुड़ाए

अगणित ज्योति द्वीप बनाए

प्रकाश पहरुए पग में बैठाए

पर आशंका बढ़ती जाए

कैसा भय, जाने कौन सताए

बचपन में कितने सपन तुड़ाए

भरी वयस में भी भरमाए

ज्यों-ज्यों बढ़ते जाए साए

दिल की धड़कन बढ़ती जाए

जानूँगा एक दिन बात सभी

छुपता कुछ भी नहीं छुपाए

बस एक समय का चक्कर है

चाहे कितनी दूर चलूँ

दूरी फिर भी बढ़ती जाए।

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